कौन, कब, कितना याद आता है इसका आज तक तो कोई बेरोमीटर बना नही है। न ही कोई ऐसा पैमाना है कि जिससे पता चले कि हमने किसी को कितना याद किया। किसी की याद तभी आती है जब वह हमारे पास नहीं होता या हमें यह पता चल जाए कि हम उस अपने से दूर होने वाले हैं।
हम जब किसी अंजान शहर मे जाते हैं। तो भीड़ का हिस्सा बन जाने के बाद भी अलग-थलग से रहते हैं तो इसलिए कि हम जानते हैं कि इस भीड़ में जितने लोग हैं वह सब अंजाने हैं। बस ऐसे ही वक्त में हमें अपनों की याद आती भी है तो कैसे कि उन अपरिचित चेहरों में हम किसी अपने का चेहरा देखने लगते हैं। उस शहर के चौराहों, गलियों में अपने शहर की कोई मिलती-जुलती गली-मकान खोज लेते हैं और इस तरह वह अंजान शहर फिर चाहे वह शिमला हो, गंगानगर, उदयपुर हो या उजैन जाने कब हमारा अपना बन जाता है। पता ही नहीं चलता। अंजाना शहर हम में कितना रच-बस गया है यह भी तब पता चलता है जब अचानक उस शहर को छोड़ने के हालात बन जाएं। सरकारी नौकरी में तबादले का दर्द सहने वाले कर्मचारी वर्ग से कौन यादा समझ सकता है अपने शहर को छोड़ने और किसी भी अंजाने शहर से जुड़ी अपनी यादों का आइना टूटने का दर्द।
शिमला की ही बात करें तो यहां का मौसम, देवदार-चीड़ के दरख्त कहां भुलाए जा सकते हैं। संघर्षों के बीच दाना-पानी के लिए संघर्ष करते बन्दर और बाकी पशु-पक्षी, संकरे रास्तों और उंचाई पर बने मकानों तक के सफर को आसान बनाते कुली(खान), चाहे जितने तनाव में भी पेशेंस नहीं खोने वाले आम लोग, बर्फीले मौसम में भी अपने दायित्व आसानी से पूरे करने वाले होकर, डाककर्मी, यादा की चाहत नहीं और जो है उसमें खुश रहने के आध्यात्म को दर्शाते लोग ये सब बताते हैं कि पहाड़ों की इस चुनौतीपूर्ण जिन्दगी को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
पहाड़ों के शिखर पर इठलाते, आसमान छूने की कोशिश करते नजर आने वाले देवदार क्या भुलाए जा सकते हैं। जाने क्यों मुझे ये ऊंचे-ऊंचे दरख्त अहसास कराते हैं कि जीवन में कुछ पाने, ऊंचा उठने के लिए संघर्ष के सफर वाले रास्ते पर चलना है तो पीछे काफी कुछ छोड़ते हुए चलना पडेग़ा। देवदार बताते हैं कि जो उंचा उठते हैं उन्हें कई तरह के त्याग करने पड़ते हैं। देवदार जैसे खड़ा सौ साल का और आड़ा भी इतने ही साल का तो जो ऊंचा उठने की चाहत रखते हैं वे सब भी अपना नाम-काम इतने वर्षों तक तभी बनाए रख सकते हैं जब वे देवदार-चीड़ जैसे वृक्षों की तरह हर हाल में अपना वजूद बनाएं रखने को तत्पर रहना सीख लें।
कोई भी अंजान शहर, अपरिचित लोग आप के तभी हो सकते हैं जब आप इन सब से तालमेल बैठाना सीख लें। आप जिस शहर में जाएं उस के प्रति एहसानमंद ना हो अपने शहर और अपने लोगों का ही गुणगान करते ना थके तो यह उस शहर के प्रति नाइंसाफी ही होगी। ऐसी तो बहू भी अपने ससुराल में कभी किसी का दिल नहीं जीत पाएगी जो रहे तो ससुराल मे लेकिन बात-बात मे मायके का जिक्र करना नहीं भूले। जीवन के किसी भी क्षेत्र में उपलब्धियों वाली मंजिल तक तभी पहुंचा जा सकता है जब उस काम के प्रति शतप्रतिशत समर्पण वाला भाव हो। यानी अंजान शहर, वहां के लोगों को आप अपना तभी बना सकते हैं जब वहां के रंग-ढंग मे ढलना भी सीख लें। ऐसा होने पर ही पता चल सकता है कि कल तक जो शहर, जो लोग अपरिचित से थे वह सब तो अपने से हो गए हैं। यह अपना सा लगने का भाव ही शहर छोड़ते वक्त तुम्हे कैसे भुलाऊं की पीड़ा मे बदल जाता है।
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